सँदेसौ देवकी सौं कहियौ का संदर्भ, प्रसंग सहित व्याख्या । Sandesaun Devaki Saun Kahiyau Surdas Ke Pad
"सँदेसौ देवकी सौं कहियौ" की संदर्भ, प्रसंग सहित व्याख्या इस आर्टिकल में की गई है। जो कि सूरदास जी की रचना है। और खास बात यह है कि यह पद्यांश यूपी बोर्ड के 10वीं के हिन्दी के काव्य में "पद" शीर्षक से है। तो अगर आप 10वीं में हो तो आपके लिए ये काम की आर्टिकल है। आपके परीक्षा में आ सकता है।
ये पद शीर्षक का ग्यारहवां "पद" है। आपको ढूढ़ने में दिक्कत ना हो इसलिए हर एक "पद" के लिए अलग - अलग आर्टिकल लिखा गया है। (यह आर्टिकल आप Gupshup News वेबसाइट पर पढ़ रहे हो जिसे लिखा है, अवनीश कुमार मिश्रा ने, ये ही इस वेबसाइट के ऑनर हैं)
Up Board Class 10th "Kavyakhand" Chapter 1 "Surdas"
यूपी 10वीं हिन्दी (काव्य) सूरदास के "पद" शीर्षक के और अन्य पदों को पढ़ें -
पद
सँदेसौ देवकी सौं कहियौ ।
हौं तो धाइ तिहारे सुत की, दया करत ही रहियौ ॥
जदपि टेव तुम जानतिं उनकी, तऊ मोहिं कहि आवै ।।
प्रात होत मेरे लाल लड़ैतैं, माखन रोटी भावै ॥
तेल उबटनौ अरु तातो जल, ताहि देखि भजि जाते ।
जोइ-जोइ माँगत सोइ-सोइ देती, क्रम-क्रम करि कै न्हाते ॥
सूर पथिक सुन मोहिं रैनि दिन, बढ्यौ रहत उर सोच ।
मेरौ अलक लडै़तो मोहन, ह्वैहै करत सँकोच ॥
संदर्भ - प्रस्तुत पद्यांश हमारी पाठ्य पुस्तक हिंदी के "काव्य खंड" में "पद" शीर्षक से उद्धृत है , जो कि "सूरसागर" नामक ग्रंथ से लिया गया है। जिसके रचयिता है "सूरदास" जी।
प्रसंग - प्रस्तुत पद में सूरदास जी ने बताया है कि श्रीकृष्ण के मथुरा चले जाने पर माता यशोदा बहुत दु:खी हो जाती हैं। उनके मन में विभिन्न आशंकाएँ और चिन्ताएँ होने लगती हैं। प्रस्तुत पद में देवकी को सन्देश भेजते समय वह अपने मन की पीड़ा को व्यक्त कर रही हैं। प्रस्तुत पद में मातृत्व प्रेम अपार रूप में झलक रहा है।
व्याख्या - प्रस्तुत पद में सूरदास जी बताते हैं कि यशोदा जी श्रीकृष्ण की माता देवकी को एक पथिक (राहगीर) द्वारा सन्देश भेजती हैं कि कृष्ण तुम्हारा ही पुत्र है, मेरा पुत्र नहीं है। मैं तो उसका पालन-पोषण करने वाली मात्र एक सेविका हूँ। पर वह मुझे मैया कहता रहा है, इसलिए मेरा उसके प्रति वात्सल्य भाव स्वाभाविक है। क्योंकि मां का प्यार मां का प्यार होता है। यद्यपि तुम उसकी आदतें तो जानती ही होगी, फिर भी मेरा मन तुमसे कुछ कहने के लिए उत्कण्ठित हो रहा है। सुबह होते ही मेरे लाड़ले श्रीकृष्ण को माखन-रोटी अच्छी लगती है। वह तेल, उबटन और गर्म पानी को पसन्द नहीं करता था, अत: इन वस्तुओं को देखकर ही भाग जाता था। उस समय वह जो कुछ माँगता था, वही उसे देती थी, तब वह धीरे-धीरे नहाता था। कवि सूरदास जी कहते हैं कि यशोदा पथिक (राहगीर) से अपने मन की दशा व्यक्त करती हुई कहती हैं कि मुझे तो रात-दिन यही चिन्ता सताती रहती है कि मेरा लाड़ला श्रीकृष्ण अभी तुमसे कुछ माँगने में बहुत संकोच करता होगा।
काव्यगत सौन्दर्य -
1. माता के वात्सल्य भाव का वर्णन हुआ है।
2. यहाँ कवि ने बाल मनोविज्ञान की सुन्दर अभिव्यक्ति की है कि बच्चे अपरिचित स्थान पर किसी चीज की इच्छा होते हुए भी संकोच के कारण चुप रह जाते हैं, जबकि अपने घर पर जिद कर लेते हैं।
3. भाषा - सरल-सरस ब्रज
4. शैली - मुक्तक
5. छन्द - गेय पद
6. रस - वात्सल्य
7. शब्दशक्ति - व्यंजना
8. गुण - माधुर्य
9. अलंकार - 'लाल लड़तें’ में अनुप्रास तथा ‘जोइ-जोइ’, ‘सोइ-सोइ’, ‘क्रम-क्रम में पुनरुक्तिप्रकाश
कठिन शब्दों के अर्थ -
धाइ = आया, सेविका
टेव = आवत
लडैतें = लाड़ले
तातो = गर्म
क्रम-क्रम = धीरे-धीरे
रैनि = रात
उर = हृदय
अलक लड़तो = दुलारे
Keywords -
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