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ऊधौ मोहिं ब्रज बिसरत नाहीं संदर्भ, प्रसंग सहित व्याख्या । Udhav Mohi Braj Bisrat Nahi Soordas Ke Pad । Up Board Hindi 10th Syllabus

"ऊधौ मोहिं ब्रज बिसरत नाहीं" की संदर्भ, प्रसंग सहित व्याख्या इस आर्टिकल में की गई है। जो कि सूरदास जी की रचना है। और खास बात यह है कि यह पद्यांश यूपी बोर्ड के 10वीं के हिन्दी के काव्य में "पद" शीर्षक से है। तो अगर आप 10वीं में हो तो आपके लिए ये काम की आर्टिकल है। आपके परीक्षा में आ सकता है। 
ये पद शीर्षक का सातवां "पद" है। आपको ढूढ़ने में दिक्कत ना हो इसलिए हर एक "पद" के लिए अलग - अलग आर्टिकल लिखा गया है। (यह आर्टिकल आप Gupshup News वेबसाइट पर पढ़ रहे हो जिसे लिखा है, अवनीश कुमार मिश्रा ने, ये ही इस वेबसाइट के ऑनर हैं)

Up Board Class 10th "Kavyakhand" Chapter 1 "Surdas" 


यूपी 10वीं हिन्दी (काव्य) सूरदास के "पद" शीर्षक के और अन्य पदों को पढ़ें -








                              पद

ऊधौ मोहिं ब्रज बिसरत नाहीं।।
बृन्दावन गोकुल बन उपबन, सघन कुंज की छाहीं ॥
प्रात समय माता जसुमति अरु नंद देखि सुख पावत ।
माखन रोटी दह्यौ सजायौ, अति हित साथ खवावत ॥
गोपी ग्वाल बाल सँग खेलत, सब दिन हँसत सिरात ।
सूरदास धनि-धनि ब्रजवासी, जिनसौं हित जदु-तात ॥

संदर्भ - प्रस्तुत पद्यांश हमारी पाठ्य पुस्तक हिंदी के "काव्य खंड" में "पद" शीर्षक से उद्धृत है , जो कि "सूरसागर" नामक ग्रंथ से लिया गया है। जिसके रचयिता है "सूरदास" जी।

प्रसंग - जब ब्रज से लौटकर उद्धव ने कृष्ण को वहां का हाल सुनाया, तो सुनकर श्रीकृष्ण जी भाव जी विभोर हो गए। प्रस्तुत पद में इसी पर वे उद्धव से अपनी मनोदशा व्यक्त करते हैं।

व्याख्या - प्रस्तुत पद में सूरदास जी कह रहे हैं कि श्रीकृष्ण ने उद्धव से ब्रजवासियों की दीन दशा सुनी और उन्हीं के ध्यान में खो गये। वे उद्धव से कहते हैं कि मैं ब्रज को भूल नहीं पाता हूँ। वृन्दावन और गोकुल के वन-उपवन संभी मुझे याद आते रहते हैं। वहाँ के घने कुंजों की छाया को भी मैं भूल नहीं पाता। हे, उद्धव! नन्द बाबा और यशोदा मैया को देखकर मुझे जो सुख मिलता था, वह मुझे रह-रहकर याद आता है। वे मुझे मक्खन, रोटी और भली प्रकार जमाया हुआ दही कितने प्रेम से खिलाते थे ? अर्थात माता यशोदा मुझसे बहुत प्यार करती थीं। (यह आर्टिकल आप Gupshup News वेबसाइट पर पढ़ रहे हो जिसे लिखा है, अवनीश कुमार मिश्रा ने, ये ही इस वेबसाइट के ऑनर हैं) ब्रज की गोपियों और ग्वाल-बालों के साथ खेलते हुए मेरे सभी दिन हँसते हुए बीता करते थे। ये सभी बातें मुझे बहुत याद आती हैं। अर्थात् बचपन में ब्रज में बीते पलों को भूल नहीं पा रहे हैं। सूरदास जी ब्रजवासियों को धन्य मानते हैं। और उनके भाग्य की सराहना करते हैं; क्योंकि श्रीकृष्ण को उनके हित की चिन्ता है और श्रीकृष्ण इन ब्रजवासियों को प्रति क्षण ध्यान करते हैं। इसी बात से यह स्पष्ट होता है कि श्रीकृष्ण ब्रजवासियों से कितना प्रेम करते थे, सूरदास जी ने प्रस्तुत पद में यही बताने की कोशिश की है।

काव्यगत सौंदर्य - 

1. भाषा-सरल-सरस ब्रज।
2. शैली-मुक्तक।
3. छन्द-गेय पदः
4. रस-शृंगार।
5. शब्दशक्ति-अभिधा और व्यंजना।
6. गुण-माधुर्य।
7. अलंकार-‘ब्रज बिसरत’, बृन्दाबन गोकुल बन उपबन’ में अनुप्रास, उद्धव के द्वारा योग का सन्देश भेजने तथा यह कहने में कि ‘मुझसे ब्रज नहीं भूलता’ में विरोधाभास है।
भावसाम्य–यही भाव रत्नाकर जी ने इस प्रकार व्यक्त किया है
8. प्रस्तुत पद में श्रीकृष्ण का ब्रजवासियों के प्रति प्रगाढ़ प्रेम झलकता है। अलौकिक व्यक्तित्व होने के बावजूद कृष्ण साधारण मनुष्य की भांति अपने प्रियजनों की याद में द्रवित हो रहे हैं।

कठिन शब्दों के अर्थ - 

बिसरत = भूलना
सघन = गहन
कुंज = छोटे वृक्षों का समूह
छाँहीं = छाया
दह्यौ = दही
सजायौ = सजा हुआ, सहित
हित = स्नेह, प्रेम
सिरात = बीत जाना
जदु-तात = कृष्ण

Keywords -

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