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मारग प्रेम को को समुझै संदर्भ, प्रसंग सहित व्याख्या । Marag Prem Ko Ko Samujhe । प्रेम माधुरी । भारतेंदु हरिश्चंद्र

प्रस्तुत पद्यांश "मारग प्रेम को को समुझै ‘" का संदर्भ , प्रसंग , व्याख्या , काव्य सौंदर्य था शब्दार्थ इस आर्टिकल में लिखा गया है। जो की भारतेंदु हरिश्चंद्र जी की रचना है , ये छात्रों के लिए काफी मददगार होने वाला है। खास बात यह है कि अगर आप यूपी बोर्ड के 12वीं में हो तो हिंदी के "काव्य" पाठ 1 में "प्रेम - माधुरी" शीर्षक से है।
आपको दूढ़ने में दिक्कत ना हो इसलिए हर एक "सेवैये" का आर्टिकल अलग - लिखा गया है। (यह आर्टिकल आप Gupshup News वेबसाइट पर पढ़ रहे हो जिसे लिखा है, अवनीश कुमार मिश्रा ने, ये ही इस वेबसाइट के ऑनर हैं)

                           सेवैया

मारग प्रेम को को समुझै ‘हरिचन्द’ यथारथ होत यथा है।
लाभ कछु न पुकारन में बदनाम ही होन की सारी कथा है।।
जानत है जिय मैरौ भली बिधि औरू उपाइ सबै बिरथा है।
बावरे हैं ब्रज के सिगरे मोहिं नाहक पूछत कौन बिथा है।।

संदर्भ - प्रस्तुत पद्यांश हमारी पाठ्य पुस्तक हिंदी के "काव्य खंड" में ‘प्रेम-माधुरी’ शीर्षक से उद्धृत है, जिसके रचयिता भारतेंदु हरिश्चंद्र जी हैं।

प्रसंग - प्रस्तुत पद्यांश में ब्रजबाला प्रेम-मार्ग पर चलने से होने वाली निन्दा एवं कष्टों का वर्णन कर रही है। उनके अनुसार प्रेम बहुत ही कष्ट और बदनामी है।

व्याख्या - प्रस्तुत पद्यांश हरिश्चंद्र जी कहते हैं कि नायिका अपनी सखी से कहती है कि प्रेम मार्ग को समझना अत्यन्त कठिन है। यह मार्ग जीवन के कटु यथार्थ की तरह ही कठोर एवं कष्टकर है। यानि प्रेम में बहुत ही कठिनाई है। वह अपनी सखी से अपनी स्थिति का वर्णन करते हुए कहती है कि इस कठिन मार्ग पर चलते हुए उसे जो कष्ट हुए हैं उसे दूसरों को सुनाने से कोई लाभ नहीं है। दूसरों को इस प्रेम-कथा को सुनाने से उसे बदनामी के अतिरिक्त कुछ भी मिलने वाला नहीं है। अर्थात अपने प्रेम के बारे में अगर किसी को बताएंगे तो केवल बदनामी होगी, क्योंकि लोगों का काम केवल मज़ा लेना है। वह कहती है कि उसे यह अच्छी तरह से पता है कि प्रेम-व्यथा से मुक्ति पाने के सभी उपाय व्यर्थ है, इसलिए इसे चुपचाप सहते जाना ही अच्छा है। उसे ऐसा लगता है जैसे ब्रज के सारे लोग पागल हो गए हैं, सब व्यर्थ ही बार-बार उसकी प्रेम-पीड़ा के बारे में पूछते है कि उसे कष्ट क्या है? आखिर उनको हमारे प्रेम से क्या लेना देना है। उसके अनुसार प्रेम-पीड़ा किसी दूसरे के सामने प्रकट करने की चीज नहीं है, जिन ब्रजवासियों द्वारा बार-बार उसके कष्ट का कारण पूछने पर उसका दुःख हो जाता है और इसे सहना अत्यन्त कठिन है। प्रस्तुत पंक्तियों में प्रेम में मिलने वाली पीड़ा साफ - साफ झलक रही है।

काव्य सौन्दर्य :-

भाव पक्ष -

(1) प्रेम पीड़ा को दूसरों के सामने प्रकट न करने के भाव की अभिव्यक्ति
(ii) रस - विप्रलम्भ श्रृंगार

कला पक्ष -

भाषा - ब्रज 
शैली - मुक्तक
छन्द - सवैया 
अलंकार - अनुप्रास 
गुण - माधुर्य
शब्द शक्ति - लक्षणा

कठिन शब्दों के अर्थ -

को - कौन 
यथारथ - यथार्थ, वास्तविक; 
जिय - हृदय; 
बिरथी - व्यर्थ; 
सिगरे - सब; 
बिथा - व्यथा, पीड़ा


Keywords -

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