"मैया री, मोहि माखन भावै" (Maiya Ri Mohi Makhan Bhawe) का भावार्थ इस आर्टिकल में की गई है। यह सूरदास जी की रचना है। जोकि सूरसागर से है। और खास बात यह है कि यह पद विभिन्न परीक्षाओं में आता रहता है। तो इसका ज्ञान होना आवश्यक है। आप को कोई भी दिक्कत न हो इसके लिए हमने सरल अक्षर में इस भावार्थ को बताया है। (यह आर्टिकल आप Gupshup News वेबसाइट पर पढ़ रहे हो जिसे लिखा है, अवनीश कुमार मिश्रा ने, ये ही इस वेबसाइट के ऑनर हैं) पद मैया री, मोहि माखन भावै । जो मेवा पकवान कहति तू, मोहि नहीं रुचि आवै ॥ ब्रज-जुवती इक पाछैं ठाढ़ी, सुनत स्याम की बात । मन-मन कहति कबहुँ अपनैं घर, देखौं माखन खात ॥ बैठैं जाइ मथनियाँ कै ढिग, मैं तब रहौं छपानी । सूरदास प्रभु अंतरजामी, ग्वालिनि-मन की जानी ॥ भावार्थ - प्रस्तुत पंक्ति में श्रीकृष्ण अपनी मैया से कहते हैं, मुझे तो बस केवल मक्खन ही अच्छा लगता है । आप जिन मेवा और पकवानों की बात कहती हैं वे तो मुझे अच्छे नहीं लगते । अर्थात मक्खन के आगे ये सब फीका है। मां और बेटे के बीच हो रहे इस वार्ता को पीछे खड़ी व्रज की एक गोपी श्याम की बातों को ग...